तरुण प्रकाश श्रीवास्तव , सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
तन जितना तृष्णा-तृष्णा चिल्लायेगा ।
मन उतना ही गीत तृप्ति के गायेगा ।।
नाखूनों से देह खुरच कर जीवन भर,
काल निरंतर मूक कहानी लिखता है ।
बाल सुलभ, यौवन मय और बुढ़ापे के,
हर स्तर पर चित्र नया ही दिखता है ।।
तन की चादर झीनी होती जाएगी ,
मन लेकिन हर बार युवा रह जायेगा ।
तन का क्या आना, क्या जाना, मिथ्या है,
मन का ही यौवन तन पर आ मिलता है ।
मन के रोने से ही आँखें रोती हैं,
मन का ही हँसना चेहरे पर खिलता है ।।
मन का अश्व अगर सध पाया जीवन में,
तन का क्या है, पीछे-पीछे आयेगा ।
तन माटी से उपजा, खोया माटी में,
सृष्टि प्रलय की ही तो सिर्फ धरोहर है ।
मन प्रतिनिधि है अनुपम दिव्य समीरण का,
तन तो चलती, मात्र, हवाओं का घर है ।
तन को छूने वाला नश्वर, माटी है,
है वो शाश्वत, जो मन को छू जायेगा ।